🟠 आदिवासी नेतृत्व की राजनीति: हिस्सेदारी या सिर्फ प्रतीकात्मकता? झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में जब भी चुनाव आते हैं, आदिवासी नेताओं के चेहरे हर पार्टी के पोस्टर पर दिखते हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है — क्या वे नीतियों के निर्धारण में हिस्सेदार हैं या केवल एक राजनीतिक प्रतीक ? 🔵 इतिहास: जब संघर्ष से उभरा नेतृत्व आदिवासी समाज का नेतृत्व संघर्षों की गोद में पला है। चाहे बिरसा मुंडा का आंदोलन हो या सिद्धू-कान्हू का हुल , नेतृत्व का मतलब था — जनता के साथ खड़ा होना। झारखंड आंदोलन (1970-2000) इसी नेतृत्व का प्रतिफल था, जहाँ लोकल भाषा, ज़मीन, और संस्कृति की रक्षा के लिए युवा उठे। “हमारी पहचान दिल्ली से नहीं, जंगल से आती है।” – एक स्थानीय ग्रामीण नेता, रामगढ़ 🔴 आज की सच्चाई: क्या आदिवासी नेता सिर्फ मुखौटा हैं? आज कई बड़े आदिवासी नेता विधानसभा या संसद में हैं, लेकिन सवाल उठता है: क्या वे नीतियों को प्रभावित कर पा रहे हैं , या केवल अपने समाज को शांत रखने का काम सौंपा गया है? 🔍 लोकल उदाहरण (Ramgarh, Jharkhand) : बोंजारा पंचायत में लगातार श...
Adiwasiawaj ek abhiyan for social justice and tribal empowerment