आदिवासी संघर्ष और संविधान
परिचय
भारत के आदिवासी समुदाय — जिन्हें ‘जनजाति’ या ‘आदिवासी’ कहा जाता है — देश की सबसे प्राचीन और मूल निवासी सभ्यताओं में से एक हैं। इनकी संस्कृति, परंपरा, भाषा, और जीवनशैली देश की विविधता और विरासत का अहम हिस्सा हैं। लेकिन आज़ादी के पहले से लेकर आज तक आदिवासी समाज लगातार शोषण, विस्थापन और भेदभाव का सामना करता रहा है। इन संघर्षों के बीच भारतीय संविधान ने उन्हें कुछ विशेष अधिकार दिए हैं, जो उनके सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक अस्तित्व की रक्षा करते हैं।
आदिवासी संघर्षों की पृष्ठभूमि
आदिवासी समाज का संघर्ष केवल आर्थिक या राजनीतिक नहीं रहा, यह एक सांस्कृतिक और अस्तित्व की लड़ाई रही है।
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भूमि और जंगल: आदिवासी जीवन का आधार जंगल और ज़मीन रहा है, लेकिन इनसे उन्हें बार-बार बेदखल किया गया — कभी खनन, कभी विकास और कभी वन विभाग के नाम पर।
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पहचान का संकट: शिक्षा, भाषा और जीवनशैली को जबरन ‘मुख्यधारा’ में मिलाने की कोशिशें हुईं, जिससे उनकी सांस्कृतिक पहचान खतरे में पड़ी।
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विस्थापन: बड़े बांध, परियोजनाएं और खनिज उद्योगों ने लाखों आदिवासियों को उनके घरों से उजाड़ा, बिना उन्हें समुचित पुनर्वास या अधिकार दिए।
संविधान में आदिवासी अधिकार
भारतीय संविधान ने आदिवासियों को 'अनुसूचित जनजाति' के रूप में मान्यता देकर कई विशेष प्रावधान किए हैं:
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अनुच्छेद 46: अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक और आर्थिक हितों की विशेष रक्षा।
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पांचवीं अनुसूची: अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातीय इलाकों के लिए विशेष प्रशासनिक व्यवस्था।
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छठवीं अनुसूची: पूर्वोत्तर भारत के जनजातीय क्षेत्रों को स्वायत्तता प्रदान करती है।
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अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 (FRA): इस कानून के तहत आदिवासियों को जंगल पर उनके पारंपरिक अधिकारों की मान्यता दी गई है।
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PESA कानून 1996 (पंचायती राज): आदिवासी इलाकों में ग्राम सभा को सर्वोच्च निर्णय लेने का अधिकार देता है।
संघर्ष और जागरूकता की ज़रूरत
हालांकि संविधान में अधिकार दिए गए हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि अधिकतर आदिवासी इन अधिकारों से अनजान हैं या उन्हें लागू नहीं किया जाता। इसलिए आज आवश्यकता है —
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जनजागरण की: गाँव-गाँव जाकर संविधान और अधिकारों की जानकारी दी जाए।
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संगठन और एकता की: आदिवासी समुदाय संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक आंदोलन करें।
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युवा नेतृत्व की: नई पीढ़ी को संविधान, कानून और डिजिटल माध्यमों का उपयोग करना आना चाहिए ताकि वे अपनी आवाज़ बुलंद कर सकें।
निष्कर्ष
आदिवासी समाज का संघर्ष केवल अपने हक़ के लिए नहीं, बल्कि इस देश की आत्मा को बचाने की लड़ाई है। उनका अस्तित्व, उनकी संस्कृति और उनका जीवन दर्शन — प्रकृति के साथ संतुलन और समरसता का प्रतीक है। संविधान ने उन्हें वह ताक़त दी है जिससे वे अपने अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं, बस ज़रूरत है समझदारी, जागरूकता और एकजुटता की।
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