झारखंडी आदिवासी और विकास के नाम पर हो रहा विस्थापन: एक कटु सच्चाई
"जहाँ आदिवासी कभी जंगल के राजा थे, वहीं आज वे विकास के नाम पर अपने ही घर से बेदखल किए जा रहे हैं।"
झारखंड की पहचान उसके घने जंगलों, उपजाऊ धरती और समृद्ध आदिवासी जीवनशैली से है। लेकिन बीते कुछ दशकों में यहाँ की असली पहचान — आदिवासी और उनकी ज़मीन — दोनों ही विकास के नाम पर निशाना बन गए हैं।
🌿 आदिवासियों का विकास मॉडल से टकराव क्यों?
झारखंड में जैसे ही कोई खनिज भंडार, जल परियोजना या उद्योग प्रस्तावित होता है, वहाँ के आदिवासियों के लिए खतरे की घंटी बज जाती है। सरकार और कंपनियाँ इसे विकास कहती हैं, लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि:
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गाँवों को उजाड़ा जाता है
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लोगों को ज़मीन से बेदखल किया जाता है
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पुनर्वास व मुआवजा अधूरा या धोखाधड़ीपूर्ण होता है
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संस्कृति, भाषा और जीवनशैली को भारी नुकसान पहुँचता है
🏹 क्या कहता है संविधान और कानून?
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पांचवीं अनुसूची और PESA कानून: आदिवासी क्षेत्रों में ग्रामसभा की अनुमति के बिना ज़मीन नहीं ली जा सकती।
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FRA 2006: वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों को उनके पारंपरिक अधिकार दिए गए हैं।
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भू-अर्जन पुनर्वास अधिनियम 2013: स्पष्ट रूप से कहता है कि बिना स्वीकृति अधिग्रहण अवैध है।
लेकिन, इन कानूनों का पालन अधिकांश मामलों में नहीं होता।
📉 विकास के दावों के पीछे का सच
"हम तुम्हें स्कूल, अस्पताल, सड़क देंगे" — ये वादे लेकर आदिवासियों की ज़मीन छीन ली जाती है, लेकिन सच्चाई ये है कि:
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ज़मीन लेने के बाद सालों तक पुनर्वास नहीं होता
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स्कूल और अस्पताल से पहले पुलिस कैंप बनते हैं
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स्थानीयों को रोज़गार नहीं, बल्कि संघर्ष और दमन मिलता है
🤝 क्यों ज़रूरी है आदिवासी मॉडल का सम्मान?
आदिवासी समाज ने सदियों से जंगल, जल, ज़मीन के साथ सामंजस्य बैठाकर जीवन जिया है। उनका जीवन प्राकृतिक संसाधनों की लूट नहीं, संरक्षण की सीख देता है।
झारखंड के आदिवासी कोई पिछड़े लोग नहीं हैं, बल्कि प्राकृतिक न्याय, सामूहिक जीवन और टिकाऊ विकास के असली वाहक हैं।
🗣️ निष्कर्ष: विकास हो, लेकिन विस्थापन नहीं!
आज ज़रूरत है एक ऐसे विकास मॉडल की जो आदिवासियों की संस्कृति, ज़मीन और हक़ को बनाए रखते हुए तरक्की की बात करे। बिना ग्रामसभा की सहमति, कोई भी परियोजना आदिवासी क्षेत्र में लागू नहीं होनी चाहिए।
आदिवासी समाज जाग चुका है। अब हर ज़मीन पर बुलडोज़र नहीं चलेगा, बल्कि हक़ की आवाज़ उठ
"झारखंड में विकास की कीमत आदिवासी क्यों चुकाएँ?"
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