पारंपरिक आदिवासी नृत्य और उनके सामाजिक महत्व
Adiwasiawaz प्रस्तुत करता है: एक झलक आदिवासी सांस्कृतिक जीवन में रचे-बसे नृत्यों की, जो केवल कला नहीं बल्कि सामाजिक संवाद और पहचान का हिस्सा हैं।
आदिवासी नृत्य: संस्कृति का जीवंत रूप
भारत के आदिवासी समुदायों में नृत्य एक गहरी सामाजिक और आध्यात्मिक परंपरा का हिस्सा है। चाहे वह झारखंड का 'पाइका नृत्य' हो या छत्तीसगढ़ का 'सुआ नृत्य', हर नृत्य प्रकृति, ऋतु, त्योहार, फसल और सामूहिकता से जुड़ा होता है।
नृत्य का सामाजिक महत्व
- एकता का प्रतीक: सामूहिक नृत्य जैसे 'करमा' और 'सरहुल' जनजातीय समाज को एकसूत्र में बांधते हैं।
- सांस्कृतिक पहचान: हर जनजाति का अपना विशिष्ट नृत्य होता है, जिससे उनकी अलग पहचान बनी रहती है।
- उत्सव और अनुष्ठान: विवाह, फसल उत्सव, पर्व या देवी-देवताओं की पूजा — हर अवसर पर नृत्य आवश्यक होता है।
- समाज में संवाद: लोकगीतों और नृत्य के माध्यम से सामाजिक मुद्दों, प्रेम, संघर्ष और एकता को अभिव्यक्त किया जाता है।
प्रमुख आदिवासी नृत्य शैलियाँ
1. करमा नृत्य
यह झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा के आदिवासियों द्वारा किया जाता है। यह फसल और प्रकृति की पूजा से जुड़ा होता है।
2. सरहुल नृत्य
झारखंड का यह नृत्य बसंत ऋतु में प्रकृति की आराधना के रूप में किया जाता है। इसमें पुरुष और महिलाएं एक साथ झूमते हैं।
3. हो नृत्य
‘हो’ जनजाति द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला यह नृत्य तेज तालों और पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ किया जाता है।
नृत्य और युवाओं की भूमिका
आज के युवा जहां एक ओर आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं, वहीं कई युवा पारंपरिक नृत्य के पुनर्जीवन में भी अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। आदिवासी त्योहारों में युवाओं की भागीदारी इस बात का संकेत है कि ये नृत्य आज भी जीवित हैं।
निष्कर्ष
पारंपरिक आदिवासी नृत्य केवल सांस्कृतिक अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि वह सामाजिक, आध्यात्मिक और राजनीतिक पहचान का भी माध्यम है। हमें इन परंपराओं को संरक्षित और प्रसारित करने की जिम्मेदारी निभानी चाहिए।
लेख: Sunil Kisku | संगठन: Adiwasiawaz
ब्लॉग लिंक: https://kusku87.blogspot.com/2025/07/adiwasi-nritya-samajik-mahatva.html
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