"माओवादी के नाम पर आदिवासियों का शोषण: जल-जंगल-जमीन पर कब्ज़ा और कॉर्पोरेट हित"
✊ माओवादी के नाम पर आदिवासियों का शोषण: जल-जंगल-जमीन की लूट और कॉर्पोरेट गठजोड़
🔍 परिचय
छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और ओडिशा जैसे खनिज-समृद्ध राज्यों में आदिवासी समुदायों को लंबे समय से उनके जल, जंगल और ज़मीन (JJJ) से बेदखल किया जा रहा है। सरकार और कॉर्पोरेट कंपनियों के बीच का गठजोड़ आज एक नये रूप में सामने आया है – माओवादी खतरे के नाम पर सुरक्षा बलों की तैनाती, गाँवों का खाली कराना और फिर अडानी जैसे औद्योगिक समूहों को खनन लीज़ देना।
यह एक रणनीति है: पहले माओवादी बताकर डर फैलाओ, फिर ज़मीन खाली कराओ, और अंत में खनन या उद्योग के लिए जमीन कॉर्पोरेट को सौंप दो।
🏹 कैसे हो रहा है आदिवासियों का शोषण?
1. माओवादी होने का लेबल
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कई गांवों को नक्सल प्रभावित क्षेत्र घोषित किया जाता है, जबकि वहां शांति और आत्मनिर्भर जीवन था।
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सुरक्षा बलों के नाम पर ग्राम रक्षा समितियाँ या अर्धसैनिक बल भेजे जाते हैं।
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बिना किसी ठोस सबूत के युवाओं को गिरफ्तार किया जाता है, उन्हें जेलों में डाल दिया जाता है।
2. ज़मीन और संसाधनों का हरण
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आदिवासी गांवों को “संवेदनशील क्षेत्र” बताकर खाली करवाया जाता है।
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गांव खाली होते ही खनन कंपनियों को लीज़ दे दी जाती है — जैसे कि अडानी को दिए गए कोल ब्लॉक।
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वन अधिकार कानून 2006 को लागू करने की बजाय सरकार उसे दरकिनार कर देती है।
3. कॉर्पोरेट गठजोड़
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अडानी समूह को ओडिशा, छत्तीसगढ़ में कई कोयला और बॉक्साइट खदानें आवंटित की गईं।
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सरकार की खनन नीति और पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रिया को कॉर्पोरेट हितों के अनुरूप ढाल दिया गया।चौंकाने वाले तथ्य
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2015 से 2024 तक छत्तीसगढ़ में 6000+ आदिवासी युवाओं को "संदिग्ध माओवादी" बताकर गिरफ्तार किया गया।
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झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में कुल लगभग 300 से अधिक खनन परियोजनाएँ प्रस्तावित हैं, जिनमें अधिकांश आदिवासी क्षेत्र में हैं।
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Forest Rights Act (FRA) 2006 को लागू किए बिना ज़मीन अधिग्रहण किया गया — जो कि गैरकानूनी है।
📢 आदिवासियों की आवाज़ कौन सुनेगा?
आज जरूरत है कि हम इस मुद्दे को मुख्यधारा में लाएं। मीडिया की चुप्पी, प्रशासन की मिलीभगत और कॉर्पोरेट लालच — इन सबके बीच आदिवासी समुदाय अकेला खड़ा है। लेकिन उनका संघर्ष जारी है — नेतरहाट आंदोलन, निया गांव की महिलाएं, डोंगरिया कोंध का प्रतिरोध, और हसदेव अरण्य की लड़ाई – ये सभी उम्मीद की किरणें हैं।
📣 निष्कर्ष
"माओवादी" का नाम अब एक बहाना बन चुका है — ताकि आदिवासियों की ज़मीन छीनी जा सके और उसे कॉर्पोरेट्स को सौंपा जा सके। इस रणनीति का विरोध जरूरी है क्योंकि यह न केवल लोकतंत्र और मानवाधिकारों का हनन है, बल्कि भारत के मूल निवासियों के अस्तित्व पर भी हमला है।
“न माओवादी हैं, न आतंकी – ये हैं जल, जंगल, ज़मीन के रक्षक।”
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