आदिवासी लोककला और सांस्कृतिक पहचान: मिट्टी से जुड़ी आत्मा की आवाज़
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आदिवासी संस्कृति — केवल परंपरा नहीं, जीवनशैली है
हम आदिवासी समाज के लिए संस्कृति सिर्फ नाच-गाना या त्योहार मनाना नहीं है, बल्कि यह जीने का तरीका है। हमारी बोली, पहनावा, खाना, खेती का तरीका, पेड़-पौधों से जुड़ाव — सब कुछ हमारी संस्कृति का हिस्सा है।
झारखंड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़, बंगाल और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में बसे आदिवासी समुदायों की लोककला आज भी जीवित है — वो मिट्टी की दीवारों पर बने चित्रों में, त्योहारों के नृत्य में, और बांस से बनी टोकरियों में सांस लेती है।
आदिवासी लोककला — मिट्टी, रंग और रीत का संगम
सोहराय और कोहबर पेंटिंग — दीवारों पर बोलती कहानियां
झारखंड के संथाल, मुंडा, हो, उरांव समुदाय की औरतें अपने घर की दीवारों पर सोहराय और कोहबर जैसे पारंपरिक चित्र बनाती हैं। ये सिर्फ सजावट नहीं, बल्कि आस्था और धरोहर का प्रतीक होते हैं। गाय, हिरण, फूल, पत्ते और सूरज जैसी चीज़ें दिखाकर वो प्रकृति से जुड़ाव और जीवनचक्र की कहानी बयां करती हैं।
मांदर की थाप पर थिरकती पहचान
मांदर, नगाड़ा, थाली, और तुरी जैसे वाद्य यंत्रों की ध्वनि जब गांव में गूंजती है, तो पूरा माहौल जीवन से भर उठता है। ये हमारे शौर्य और संगठन की पहचान हैं — चाहे वह सरहुल हो या जतरा, या फिर किसी आंदोलन का मंच।
आदिवासी नृत्य और गीत — सामूहिकता का उत्सव
हमारे समाज में नाचना-गाना अकेले का नहीं होता, पूरा गांव साथ चलता है। हाथ में हाथ डालकर गोल घेरा बनाना — यही है सांस्कृतिक एकता।
जत-जातरा में गूंजते गीत
जतरा, बाहा, सारहुल, मागे पर्व, करणी पूजा जैसे त्योहारों में गाए जाने वाले गीत सिर्फ मनोरंजन नहीं, ये हमारे संघर्ष, प्रेम, मजदूरी, और प्रकृति से रिश्ते की दास्तां हैं।
इन गीतों में खेत-खलिहान, जंगल-पहाड़, चांद-सूरज सब कुछ शामिल होता है। जब दायें-बाएं झुकते हुए हम नाचते हैं, तो हमारा शरीर, मन और धरती — तीनों एक लय में आते हैं।
कपड़ों में भी बसी है पहचान
हमारे पारंपरिक वस्त्र जैसे साड़ी (फेंटा साड़ी), गमछा, बनकट्टा, सिंगों, और टसर रेशमी वस्त्र केवल पहनावे नहीं हैं — ये हमारी पहचान और प्रतिरोध का प्रतीक हैं।
महिलाओं की सिर पर बांधी गई पगड़ी, पुरुषों का पगहा गमछा और बच्चों के गले में ताबीज — यह सब हमारी धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक मान्यताओं को दर्शाते हैं।
हस्तशिल्प और कारीगरी — हुनर में इतिहास छिपा है
बांस की टोकरियाँ और लकड़ी की मूर्तियाँ
हमारे दादा-परदादा अपने हाथों से बांस की टोकरी, खपड़ा, छाना, डाला, मूसर जैसी चीज़ें बनाते थे, जो आज भी हर घर में मिलती हैं। ये सिर्फ जरूरत की चीजें नहीं, सदियों पुराने अनुभव का निचोड़ हैं।
लकड़ी और मिट्टी से बनी कहानियां
मेला-जात्रा में बिकने वाली मिट्टी की हाथी, घोड़ा, सुआ, और लकड़ी की मूर्तियाँ — ये आदिवासी जीवन के प्रतीक हैं। आज भी कई कलाकार इस परंपरा को बचाए हुए हैं, लेकिन उन्हें पहचान और बाजार नहीं मिल पा रहा।
आदिवासी संस्कृति पर संकट क्यों?
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भूमंडलीकरण और बाजारवाद के चलते हमारी कलाएं हाशिये पर जा रही हैं।
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शिक्षा और रोजगार की कमी से युवा अपने ही लोकजीवन से कटते जा रहे हैं।
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पर्यटन और सरकारी योजनाएं भी दिखावे तक सीमित हैं, जिससे असली कलाकारों को लाभ नहीं मिलता।
पहचान बचाने के लिए हमें ही आगे आना होगा
हमारी संस्कृति को कोई और नहीं बचाएगा। हमें ही…
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अपने बच्चों को मांदर बजाना, लोकगीत गाना और चित्र बनाना सिखाना होगा।
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मेलों में स्थानीय कलाकारों को मंच देना होगा।
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सोशल मीडिया और ब्लॉग के ज़रिए अपनी कला को दुनिया तक पहुंचाना होगा।
निष्कर्ष: जब तक लोककला जीवित है, आदिवासी आत्मा भी जीवित है
लोककला और सांस्कृतिक पहचान सिर्फ बीते ज़माने की बात नहीं, बल्कि हमारे भविष्य की नींव है। यदि हम अपनी मिट्टी, अपने गीत और अपनी चित्रकला को बचा पाए, तो कोई भी हमें “बिना पहचान वाला” नहीं कह सकेगा।
✍️ यह लेख Adiwasiawaz द्वारा प्रकाशित किया गया।
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