खनन और विकास : आदिवासी हित या नुकसान?
लेखक: Adiwasiawaz
परिचय: विकास का अर्थ किसके लिए?
खनन को अक्सर आर्थिक विकास और औद्योगिक प्रगति का आधार माना जाता है। लेकिन जब यह विकास आदिवासियों की ज़मीन, जंगल और आजीविका छीनकर होता है, तब सवाल उठता है: यह किसका विकास है और किस कीमत पर?
खनन: आदिवासियों के लिए अवसर या संकट?
खनिज संपदा से भरपूर झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा जैसे राज्यों में खनन परियोजनाओं के लिए सबसे ज़्यादा जमीन आदिवासी समुदाय की ली जाती है।
मुख्य नुकसान:
- विस्थापन: गांव उजड़ते हैं, सामाजिक ढांचा टूटता है।
- रोज़गार का झांसा: स्थानीय आदिवासी बेरोज़गार ही रहते हैं जबकि बाहर से लोग नौकरी पाते हैं।
- पर्यावरणीय संकट: जंगल कटते हैं, जल स्रोत सूखते हैं और प्रदूषण बढ़ता है।
- संस्कृति पर प्रहार: सांस्कृतिक विरासत और पारंपरिक जीवनशैली खत्म होने लगती है।
कुछ उदाहरण:
- बोकारो स्टील प्लांट: हजारों आदिवासी विस्थापित हुए, आज भी उनका पुनर्वास अधूरा है।
- लातेहार और गढ़वा: कई कोल माइंस में स्थानीय युवाओं को स्थायी रोज़गार नहीं मिला।
क्या कहते हैं कानून?
Forest Rights Act 2006 और PESA जैसे कानून आदिवासियों को जमीन, जंगल और ग्रामसभा का अधिकार देते हैं, लेकिन खनन कंपनियां और सरकारें इन्हें अक्सर नजरअंदाज करती हैं।
विकल्प क्या हैं?
- स्थानीय ग्रामसभा की सहमति से ही कोई परियोजना लागू हो।
- पारंपरिक आजीविका को प्राथमिकता दी जाए।
- खनन से पहले सामाजिक प्रभाव अध्ययन और पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए।
निष्कर्ष: विकास का मतलब जनविरोधी न हो
अगर विकास आदिवासी समुदाय को उसके मूल अधिकारों से वंचित करता है तो वह विकास नहीं, शोषण है। 'Adiwasiawaz' यह मांग करता है कि विकास की हर योजना में आदिवासियों की भागीदारी, सहमति और नेतृत्व अनिवार्य हो।
लेख: Adiwasiawaz
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