🌿 शोषण मुक्त समाज की कल्पना और आदिवासी समाज की भूमिका
"जहां हर हाथ को हक़ मिले, हर ज़मीन पर न्याय हो"
आज जब हम एक समानता आधारित, न्यायपूर्ण और टिकाऊ विकास की बात करते हैं, तो सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठता है — क्या वाकई हम एक शोषण मुक्त समाज की कल्पना कर सकते हैं? और अगर हाँ, तो वह कैसा होगा? यह सवाल सिर्फ सैद्धांतिक नहीं है, बल्कि हमारे सामाजिक ढांचे, आर्थिक नीतियों और सत्ता संरचनाओं से गहराई से जुड़ा हुआ है। इस संदर्भ में आदिवासी समाज की जीवनशैली, दर्शन और संघर्ष हमें एक वैकल्पिक दिशा दिखाते हैं, जो न केवल टिकाऊ है बल्कि वास्तव में शोषण-मुक्ति की राह पर ले जाने में सक्षम है।
🌱 आदिवासी जीवनदर्शन में पहले से है शोषण मुक्त समाज की झलक
आदिवासी समाज सदियों से जंगल, पहाड़, नदी और ज़मीन के साथ सामंजस्यपूर्ण जीवन जीता आ रहा है। उनकी संस्कृति में न तो संपत्ति का निजी स्वामित्व है और न ही किसी एक व्यक्ति की सत्ता का वर्चस्व। ग्रामसभा के ज़रिए सामूहिक निर्णय, श्रम की बराबरी, महिलाओं की भागीदारी, और प्रकृति के साथ संतुलन — ये सभी आदिवासी जीवन के अभिन्न हिस्से हैं। यही वजह है कि आदिवासी समाज का ढांचा खुद में एक सामाजिक न्याय और समानता का मॉडल पेश करता है।
जहां मुख्यधारा समाज में शोषण वर्ग, जाति, लिंग और पूंजी आधारित होता है, वहीं आदिवासी समाज में श्रम और संसाधनों का सम्मान होता है। यह समाज अपने सांस्कृतिक मूल्य, भाषा और परंपराओं के ज़रिए समानता और सहभागिता को केंद्र में रखता है।
🔥 लेकिन आदिवासी समाज खुद शोषण का शिकार क्यों है?
विडंबना यह है कि जो समाज शोषण मुक्त जीवन जीता है, वह आज सबसे ज़्यादा शोषण का शिकार है। खनन परियोजनाएं, बड़े बांध, SEZ, इंडस्ट्रीज़, और तथाकथित "विकास परियोजनाएं" आदिवासियों की ज़मीन छीन रही हैं। उन्हें उनके जल, जंगल और ज़मीन से विस्थापित किया जा रहा है। कई बार उन्हें बिना उनकी अनुमति और जानकारी के उनकी मातृभूमि से हटाया जाता है।
इसके साथ-साथ प्रशासनिक लापरवाही, भ्रष्टाचार, और लोकल गवर्नेंस की अनदेखी भी इस शोषण को और गहरा बनाते हैं। वनाधिकार कानून (Forest Rights Act 2006) और पेसा कानून (PESA) जैसे संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद, उनका प्रभाव ज़मीन पर कम दिखता है।
✊ आदिवासी संघर्ष: शोषण के खिलाफ एक सतत आंदोलन
झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और बंगाल के जंगलों में आज भी ग्रामसभा, जनआंदोलन, और सत्याग्रह के ज़रिए आदिवासी समुदाय अपने अधिकारों के लिए लड़ रहा है। "जल-जंगल-ज़मीन हमारा है", "हमारे संसाधनों पर हमारा हक़", जैसे नारे सिर्फ भावना नहीं बल्कि एक राजनीतिक चेतना का रूप हैं।
चांड और भैरव की गाथाएं, बिरसा मुंडा की क्रांति, सिद्धू-कान्हू का विद्रोह और आज के सामाजिक कार्यकर्ता और संगठनों की सक्रियता इस बात का प्रमाण हैं कि आदिवासी समाज ने कभी अन्याय को चुपचाप स्वीकार नहीं किया।
इन संघर्षों का उद्देश्य सिर्फ जमीन बचाना नहीं, बल्कि अपने जीवन के तरीकों, संस्कृति और आत्मसम्मान की रक्षा करना है। यह केवल अधिकार की लड़ाई नहीं, यह एक वैकल्पिक समाज व्यवस्था की रचना की लड़ाई है।
शोषण मुक्त समाज के लिए समाधान क्या हो सकते हैं?
अगर हम सच में एक शोषण मुक्त समाज की ओर बढ़ना चाहते हैं, तो हमें विकास की वर्तमान दिशा को बदलना होगा। कुछ आवश्यक कदम निम्नलिखित हैं:
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संसाधनों पर स्थानीय समुदाय का प्राथमिक हक़ सुनिश्चित किया जाए।
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ग्रामसभा और आदिवासी स्वशासन को कानूनी ताकत दी जाए।
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आदिवासी शिक्षा और भाषा को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए।
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वनाधिकार और पेसा कानून का सख्त पालन हो।
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आर्थिक विकास की योजनाएं नीचे से ऊपर की सोच के साथ बनाई जाएं, न कि ऊपर से थोप दी जाएं।
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महिलाओं और युवाओं को नेतृत्व में लाया जाए, क्योंकि वही बदलाव के वाहक बन सकते हैं।
🌍 निष्कर्ष: आदिवासी दृष्टिकोण ही है भविष्य की राह
शोषण मुक्त समाज कोई काल्पनिक विचार नहीं, बल्कि एक संवेदनशील, न्यायपूर्ण और सामूहिक समाज व्यवस्था है जिसे आदिवासी समाज पहले से जीता आया है। हमें इस जीवनशैली को केवल समझने की नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन के मॉडल के रूप में अपनाने की ज़रूरत है।
आज जब जलवायु संकट, सामाजिक असमानता और सांस्कृतिक विघटन की बातें हर मंच पर हो रही हैं, तो यह साफ़ है कि वर्तमान विकास मॉडल असफल हो रहा है। ऐसे में आदिवासी समाज का दर्शन और जीवन प्रणाली ही हमें एक नया रास्ता दिखा सकती है
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